Thursday, December 9, 2010

My Imagination in photoshop - by Vikash Chandra Das



Black & White




Dream Lake







My Burning Animated Name





My Face on Moon




Going to the end alone...



wounded Hand





I'm in sad






Saturday, September 4, 2010

Paint Photos By me - by Vikash Chandra Das

Painted in MS Paint

When I purchased my computer first time no good software even games were installed. So i found Paint and started painting. And day by day I was liking that and make some paintings through computer. May it a crazy work but I've done so and I like them also.

Here are some my 1st paintings in MS Paint

Broken Glass
used free from select and press delete then filled colors







Imagination




Friendship Flower
Used Curve to make this.






Garden






Lonely Street






Fengsui






Attitude






Eye





A Design




Old Lady




Sad Face




Tree
















Desert
Joker




Lotus











Water Fall

Sunday, February 14, 2010

बसंत (Spring Time)



















"मधु बाता ऋतायते मधु ख्यारंती सिन्धबः
माधुइर्नह संतोसधि:."

एक नज़र जन्म भूमि के तरफ

बसंत की आगमन - आम की पेड़ों मैं उसकी फूल निकलती अति हुई ! ऐसे लगती थी की जैसे वोह अपने सरीर मैं बिभिन्न अलंकारों को धारण कर रहे थे. कोयल की कुह कुह सुर, वोह सुमधुर सुबासित फूल पर छोटे छोटे तितलिओं ----- और कितने प्रकृति के समभार दे कर बसंत चलती जाती है उसकी उसकी हस्ती खिलती समय को पर करते हुए. बस यहीं पर ही ख़तम हो जाती है सब कुछ, और फिर सुरु हटी है एक नई ज़िंदगी.

"ग्रीष्म" ! यहाँ धुप की ताप है मेरा दुःख, ग्रीष्म मैं जल मेरा आंसू, ग्रीष्म मैं सूखे हव पौधा मैं, और ग्रीष्म की मरीचिका मेरा जीवन. उसी ग्रीष्म की अलोक मैं मैं हुआ हूँ छाया सुन्य. ऐसे लगता है की जैसे ग्रीष्म मेरा भाग्य और उसका रूप मेरा दुर्भाग्य. और मैं सायद एक जिवंत प्रतिरूप.

हम पीछे छोड़ आए हैं हमारी जननी जन्मभूमि को. गाँव से तःथा अपनी जन्म भूमि को छोड़ आने की बाद हम खोये हैं जननी की ममता और जन्म भूमि की मधुरता. पैर यहाँ आके न हम हुए हैं बिरपुत्र, ना भूमिपुत्र. सिर्फ वसे ही एक मनाब मैं गिनती होती है हमारी.

यहाँ लगता है की जैसे हम जननी, जन्म भूमि को छोड़ के नहीं ए हैं बलकी खोये हैं. जन्म भूमि अपनी मधुर पानी , पवन धुलमिटटी से हम को छोटे से बड़ी करती है. माँ बहुत दुःख कास्ट सहन करके स्नेह ममता और आदर देके हमार्ल लालन पालन करती है. ये दोने दो अंग जैसे, जैसे दो आंख - हाथ - पैर. जिसके बिना प्राणी असम्पूर्ण है. इसी लिए मैं आज असम्पूर्ण. खो गया हूँ मैं अँधेरी की गहराई मैं. जन्म भूमि से दूर आके कोई यहाँ अपनी स्वप्न साकार करने आके खो जाते हैं पाश्चात्य के स्वप्न मैं. तो कोई सफल भी हटा है. "यहाँ जन्म भूमि की नाम आती है".


















"जब कोई गाँव से सहर को जाता है,
और जब कोई सहर से गाँव को लौट ता है,
क्या वोही तमन्ना दिल मैं होती है,
जो गाँव से जाते वक़्त औए सहर से लौट ते वक़्त,
जो दिल और दिमाग से दोहराया जासकता है
.

वोह ना देस की, राज्य की, सहर की, गाँव की - जन्म भूमि की. पर यहाँ जन्म भूमि बहुत ही पीछे ठहर जाती है. ऐसे भी लोग हैं जो अपनी जन्म भूमि को ये देस, राज्य, सहर की तुलना मैं छोटे मानते हैं. भूल जाते हैं अपनी जन्म भूमि को और अपने को उसी देस की, राज्य की, नागरिक समझ के उचे मन करते हैं.


पर यहाँ अगर परास्ना उठती है की कौन "निर्धिस्ट" और कौन "निरुधिस्ट" है तो वोह सही तरी का से बोला नहीं जा सकता. अपनी गाँव, जन्म भूमि के लिए निरुधिस्ट हो जा सकते हैं, पर यह सहर वासियों के लिए कब निर्धिस्ता हो जाते हैं वोह पता नहीं चलती है.

ऐसे ही एक हम हैं जो "निर्धिस्ट" और कौन "निरुधिस्ट" मैं खो चुके हैं. हमारी तम्म्नाएँ रुद्ध हो चुके हैं जैसे लगती है. यए लेखा कुछ ऐसे है की जो अपनी संस्कृति को ना तोड़ सकते हैं ना छोड़ सकते हैं पर हम इसे जोड़ने की प्रयास मैं लगे रहते हैं.

ऐसे ही एक था वोह मनुष्य जो अपनी राह पर चलता जा रहा था. एक दिन उसे अपनी जन्म भूमि चोदना पड़ा, कुछ ऐसी थी उसकी जन्म भूमि - "सुजला सुफला सस्य श्यामला, कानन कुंतला तटिनी मेखला और सुसोभिता करुकार्य मान्द्दिता".

यह और कोई नहीं हम सब खुद ही हैं. हमारी इस सुन्दर जन्म भूमि को छोड़ कर आज हम पराया होने लगे हैं. हमारी देस से, हमारी जन्म भूमि से. तो अब बनगया है यही हमारी संस्कृति.