Thursday, December 9, 2010
Sunday, September 5, 2010
Saturday, September 4, 2010
Paint Photos By me - by Vikash Chandra Das
When I purchased my computer first time no good software even games were installed. So i found Paint and started painting. And day by day I was liking that and make some paintings through computer. May it a crazy work but I've done so and I like them also.
Labels:
Bachpan,
Learning Computer,
MS Paint Photos
Location:
Rourkela, Odisha, India
Sunday, February 14, 2010
बसंत (Spring Time)
"मधु बाता ऋतायते मधु ख्यारंती सिन्धबः
माधुइर्नह संतोसधि:."एक नज़र जन्म भूमि के तरफ
"ग्रीष्म" ! यहाँ धुप की ताप है मेरा दुःख, ग्रीष्म मैं जल मेरा आंसू, ग्रीष्म मैं सूखे हव पौधा मैं, और ग्रीष्म की मरीचिका मेरा जीवन. उसी ग्रीष्म की अलोक मैं मैं हुआ हूँ छाया सुन्य. ऐसे लगता है की जैसे ग्रीष्म मेरा भाग्य और उसका रूप मेरा दुर्भाग्य. और मैं सायद एक जिवंत प्रतिरूप.
हम पीछे छोड़ आए हैं हमारी जननी जन्मभूमि को. गाँव से तःथा अपनी जन्म भूमि को छोड़ आने की बाद हम खोये हैं जननी की ममता और जन्म भूमि की मधुरता. पैर यहाँ आके न हम हुए हैं बिरपुत्र, ना भूमिपुत्र. सिर्फ वसे ही एक मनाब मैं गिनती होती है हमारी.
यहाँ लगता है की जैसे हम जननी, जन्म भूमि को छोड़ के नहीं ए हैं बलकी खोये हैं. जन्म भूमि अपनी मधुर पानी , पवन धुलमिटटी से हम को छोटे से बड़ी करती है. माँ बहुत दुःख कास्ट सहन करके स्नेह ममता और आदर देके हमार्ल लालन पालन करती है. ये दोने दो अंग जैसे, जैसे दो आंख - हाथ - पैर. जिसके बिना प्राणी असम्पूर्ण है. इसी लिए मैं आज असम्पूर्ण. खो गया हूँ मैं अँधेरी की गहराई मैं. जन्म भूमि से दूर आके कोई यहाँ अपनी स्वप्न साकार करने आके खो जाते हैं पाश्चात्य के स्वप्न मैं. तो कोई सफल भी हटा है. "यहाँ जन्म भूमि की नाम आती है".
"जब कोई गाँव से सहर को जाता है,
और जब कोई सहर से गाँव को लौट ता है,
क्या वोही तमन्ना दिल मैं होती है,
जो गाँव से जाते वक़्त औए सहर से लौट ते वक़्त,
जो दिल और दिमाग से दोहराया जासकता है.
और जब कोई सहर से गाँव को लौट ता है,
क्या वोही तमन्ना दिल मैं होती है,
जो गाँव से जाते वक़्त औए सहर से लौट ते वक़्त,
जो दिल और दिमाग से दोहराया जासकता है.
वोह ना देस की, राज्य की, सहर की, गाँव की - जन्म भूमि की. पर यहाँ जन्म भूमि बहुत ही पीछे ठहर जाती है. ऐसे भी लोग हैं जो अपनी जन्म भूमि को ये देस, राज्य, सहर की तुलना मैं छोटे मानते हैं. भूल जाते हैं अपनी जन्म भूमि को और अपने को उसी देस की, राज्य की, नागरिक समझ के उचे मन करते हैं.
पर यहाँ अगर परास्ना उठती है की कौन "निर्धिस्ट" और कौन "निरुधिस्ट" है तो वोह सही तरी का से बोला नहीं जा सकता. अपनी गाँव, जन्म भूमि के लिए निरुधिस्ट हो जा सकते हैं, पर यह सहर वासियों के लिए कब निर्धिस्ता हो जाते हैं वोह पता नहीं चलती है.
ऐसे ही एक हम हैं जो "निर्धिस्ट" और कौन "निरुधिस्ट" मैं खो चुके हैं. हमारी तम्म्नाएँ रुद्ध हो चुके हैं जैसे लगती है. यए लेखा कुछ ऐसे है की जो अपनी संस्कृति को ना तोड़ सकते हैं ना छोड़ सकते हैं पर हम इसे जोड़ने की प्रयास मैं लगे रहते हैं.
ऐसे ही एक था वोह मनुष्य जो अपनी राह पर चलता जा रहा था. एक दिन उसे अपनी जन्म भूमि चोदना पड़ा, कुछ ऐसी थी उसकी जन्म भूमि - "सुजला सुफला सस्य श्यामला, कानन कुंतला तटिनी मेखला और सुसोभिता करुकार्य मान्द्दिता".
यह और कोई नहीं हम सब खुद ही हैं. हमारी इस सुन्दर जन्म भूमि को छोड़ कर आज हम पराया होने लगे हैं. हमारी देस से, हमारी जन्म भूमि से. तो अब बनगया है यही हमारी संस्कृति.
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